Saturday, 31 May 2025

ओट धर्म की छिप जा प्यारे - एक गीत

 

हो जायेंगे वारे - न्यारे,
ओट धर्म की छिप जा प्यारे।

चूक गईं तरकीबें सारी,
गांधारी ने पट्टी बाँधी,
कुरुक्षेत्र में योद्धाओं को,
डसने लगी सर्पिणी आँधी।
धर्म मार्ग पर चलते -चलते,
पग - पग पर ही पांडव हारे।
हो जायेंगे..................।

विदुर- भीष्म- राधेय- सुयोधन,
चले शीश पर धर सिंहासन,
सत्य- असत्य, अधर्म -धर्म का,
सार कह गया बलि घर वामन।
अक्षौहिणी चमुओं का कौशल,
कितनी बार मिला हैं गारे।
हो जायेंगे.....................।

धर्म बोध आगम सम्मत पर,
साधु - सन्त भी मौन रहेंगे ,
योग क्षेम वैभव का रखकर,
मीठे स्वर में सूक्ति कहेंगे।
खामोशी की चीख सुनी तो,
समझो मौत आ गई द्वारे।
हो जायेंगे...................।
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डॉ. मदन मोहन शर्मा
सवाई माधोपुर ,राज.
गारे = कीचड़।

Sunday, 25 May 2025

असली इबादत - एक ग़ज़ल

 

करें हम दीन दुखियों की मदद सच्ची इबादत है
यही वो नेक जज़्बा है जो इंसानी नफ़ासत है

कभी भूखे को दस्तर-ख़्वान पे खाना खिला देना
ख़ुशी हासिल करोगे जो वही असली इनायत है

जो नंगे तन बदन बच्चे कभी मायूस मिल जाएँ
उन्हें ख़ुशियाँ दिला देना यही सचमुच दियानत है

ग़रीबों की दुआएँ लो उठा कर ख़र्च शादी का
ये प्यारी बेटियाँ सबकी असल में साझी इज़्ज़त है

करम मा'बूद का ’सूरज’ बनाया है हमें लायक
अदल ख़ालिस ख़ुदा करता वही आ’ला अदालत है

*** सूरजपाल सिंह
कुरुक्षेत्र।

Sunday, 18 May 2025

हे मानव निराश मत होना - एक गीत

हे मानव निराश मत होना, जब तक रहे श्वास में श्वास।
दूर क्षितिज पर उभर लालिमा, देती नव जीवन की आस।

जब आलोक तिरोहित हो अरु,
तमसावृत्त दिखे संसार।
धूमिल आशा स्वप्न छीन ले,
मिले न जीने का आधार।
तब भी बीज अंकुरित होता, भीतर होता रहे प्रयास।
हे मानव निराश मत होना, जब तक रहे श्वास में श्वास।

विकट समस्या भले खड़ी हो,
अविचल रहें रखें अवधान।
सदा द्विपक्षी होती घटना,
लक्ष्य साध कर शर सन्धान।
सबसे बड़ा आत्मा का बल, विस्मृत करके करो न ह्रास।
हे मानव निराश मत होना, जब तक रहे श्वास में श्वास।

इच्छाशक्ति अमर संजीवनि,
लाती खींच मृत्यु के पार।
पत्थर में भी फूल खिला दे,
मन में अमित शक्ति भण्डार।
सदा कार्य में बने सहायक, ईश्वर पर अटूट विश्वास।
हे मानव निराश मत होना, जब तक रहे श्वास में श्वास।

*** डॉ. राजकुमारी वर्मा


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Sunday, 11 May 2025

साहित्य उदधि - एक गीत

 

बूँद-बूँद रस के विलयन से, यह साहित्य उदधि निखरा है।
ऊँचाई कहती है हँसकर, एक-एक पग सतत धरा है।

सहज साधना और तपस्या, ज्योतित करता है आगत को।
जहाँ स्वयं सिद्धियाँ बिछातीं, अपनी पलके हैं स्वागत को।
सतत साधना हुई प्रतिफलित, सहज शान्ति से हृदय भरा है।
बूँद बूँद रस के विलयन से, यह साहित्य उदधि निखरा है।

नव रस की निधियाँ बिखरी हैं, यति गति छन्द वितान तना है।
छन्द मुक्त भावानुभूति से, छाया उर आनन्द घना है।
गद्य विधान करे आकर्षित, भाषा का सौन्दर्य झरा है।
बूँद बूँद रस के विलयन से, यह साहित्य उदधि निखरा है।

शैशव का मधुरिम पन विहँसा, ली कैशोर्य जनित अँगड़ाई।
साहित्यिक सुषमा से मण्डित, तन ने छटा मनोहर पाई।
सदा जहाँ तरुणाई विलसे, नहीं पहुँचती कभी जरा है।
बूँद बूँद रस के विलयन से, यह साहित्य उदधि निखरा है।

*** सीमा गुप्ता ‘असीम’

Sunday, 4 May 2025

बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों - एक गीत

घोर अंधकार में निरुद्ध सर्व द्वार हों
बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों
युद्ध एक मात्र ही विकल्प शेष है सुनों
धर्म स्थापना निमित्त यत्न आर-पार हों

शब्द बाण त्याग दें तीर तेग तान लें
शत्रु वातकेतु चाट स्वाद आज जान लें
बीज नाश हो अराति का यही प्रयास हो
शूरवीर देश के निशंक आज ठान लें
भिन्नता न खिन्नता जुदा नहीं विचार हों
बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों

रक्त निम्नगा बहे सुजान धैर्य धार लें
रोज़ रोज़ की व्यथा लदान ये उतार लें
नस्ल के भविष्य हेतु आज प्राण त्याग दें
ख़त्म हो हिसाब और क्यूँ ज़रा उधार लें
देश प्रेम भावना जगे चलो निसार हों
बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों

सत्य जीतता सदा यही यकीन धर्म है
देश के लिए जिएं मरें महान कर्म है
लालसा न स्वर्ग की न मोक्ष चाहना हमें
ग्रन्थ ज्ञान है यही , यही पुराण मर्म है
धर्म युद्ध के लिए दहाड़ ज़ोरदार हों
बार-बार पीठ पे न शत्रु के प्रहार हों

सूरजपाल सिंह
कुरुक्षेत्र।

"फ़ायदा"

  फ़ायदा... एक शब्द जो दिख जाता है हर रिश्ते की जड़ों में हर लेन देन की बातों में और फिर एक सवाल बनकर आता है इससे मेरा क्या फ़ायदा होगा मनुष्य...