Sunday, 27 April 2025

आतंक/दहशत/ख़ौफ़ - एक ग़ज़ल

 

कैसी हुई आज वहशत
सकते में आयी निज़ामत

ग़मगीन इंसा हुआ है
हर सिम्त है एक ज़हमत

आतंक फैला रहे जो
उनके दिलों में है नफ़रत

हथियार हाथों में ले कर
लूटें लुटेरे मसर्रत

रखना ज़रा सब्र यारो
हो ख़त्म दिल से न वहदत

इंसानियत का तक़ाज़ा
रहे ज़िन्दगी हर सलामत

रखना ज़रा सब्र 'कुंतल'
बेशक़ बचेगी न दहशत

*** कुन्तल श्रीवास्तव

No comments:

Post a Comment

वर्तमान विश्व पर प्रासंगिक मुक्तक

  गोला औ बारूद के, भरे पड़े भंडार, देखो समझो साथियो, यही मुख्य व्यापार, बच पाए दुनिया अगर, इनको कर दें नष्ट- मिल बैठें सब लोग अब, करना...