कर ध्वनित माँ ब्रह्म लहरी शेष 'मैं' का रह न जाए।
हो अकेला भाव सागर भव व्यथा कुछ रह न पाए।
श्वेत पद्मासन विराजित शारदे तुझको पुकारूँ।
छोड़ कर सारे सितासित यह हृदय तव गीत गाए।
गूँजते हों स्वर प्रणव के ओम् की माँ तृप्ति भर दो।
ज्ञान की नित नव प्रभा से मम हृदय परिपूर्ण कर दो।
भावना के सिन्धु से ये मन सहेजे भाव मोती।
ऊर्मियों की चाँदनी से जो समेटे दिव्य ज्योती।
प्रेम का विस्तार कर दे क्या करेगा अब सघन तम,
आपका ही प्यार पाकर मैं नए सपने सँजोती।
रह न जाए तम भरा कोई किनारा मातु वर दो।
ज्ञान की नित नव प्रभा से मम हृदय परिपूर्ण कर दो।
हो गई है भू बसन्ती मातु तेरी अर्चना में।
झर रही हैं स्वर्ण वर्णी रश्मियाँ तव वन्दना में।
फिर रहे क्यों तम हृदय में शारदे तू तार दे माँ,
भर गए हैं रंग अनगिन मातु स्वागत अल्पना में।
हो रहा है मन तरंगित कल्पना को नव्य स्वर दो।
ज्ञान की नित नव प्रभा से मम हृदय परिपूर्ण कर दो।
*** सीमा गुप्ता 'असीम'
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