Sunday, 26 January 2025

सकल सृष्टि - एक गीत

 

हे भुवनेश प्रकृति पति ईश्वर, जग उपवन के माली।
सुन्दर सुरभित उपादान ले, सकल सृष्टि रच डाली।

है अक्षुण्ण जो सृष्टि तुम्हारी, मरुत सदृश हैं गायक।
जहाँ मनुज का हस्तक्षेप न, वही प्रकृति सुखदायक।
रसवंती सरि धवल हिमालय, हवा चले मतवाली।
सुन्दर सुरभित उपादान ले, सकल सृष्टि रच डाली।

अमला धवला और नील सी, नदियों का इठलाना।
लहर-लहर आँचल लहराना, इत-उत आना जाना।
झर-झर झरें दूधिया निर्झर, मनमोहक हरियाली।
सुन्दर सुरभित उपादान ले,सकल सृष्टि रच डाली।

हे मानव उपवन निसर्ग से, अगणित खुशियाँ भरता।
वन्य जीव का यही सुखालय, पंक्षी कलरव करता।
सुनो कर्ण में घोल रही मधु, कोकिल कूक निराली।
सुन्दर सुरभित उपादान ले, सकल सृष्टि रच डाली।

*** डॉ. राजकुमारी वर्मा

Sunday, 19 January 2025

धर्म पर दोहा सप्तक

 

धर्म बताता जीव को, पाप-पुण्य का भेद।
कैसे जीना चाहिए, हमें सिखाते वेद।।

दया धर्म का मूल है, यही सत्य अभिलेख।
करे अनुसरण जीव जो, बदले जीवन रेख।।

सदकर्मों से है भरा, हर मजहब का ज्ञान।
चलता जो इस राह पर, वो पाता पहचान।।

पंथ हमें संसार में, सिखलाते यह मर्म
जीवन में इन्सानियत, सबसे उत्तम कर्म।।

चलते जो संसार में, सदा धर्म की राह।
नहीं निकलती कष्ट में, उनके मुख से आह।।

धर्म - कर्म से जो भरे, अपनी गागर नित्य।
उसके पुण्यों का नहीं, ढलता फिर आदित्य।।

मजहब तो इंसान का, प्रेम सुधा आनन्द।
लगा दिए संसार ने, नफरत के पैबंद।।

*** सुशील सरना

Sunday, 12 January 2025

आगत का है स्वागत करना - एक गीत

आगत का है स्वागत करना, संस्कृति का आधार लिए।
मंत्र सिद्ध अनुशासित जीवन, नेकी सद आचार लिए।

घटती-बढ़ती नित्य पिपासा,
पथ की बाधा बने नहीं।
अधरों की चाहत रखने में,
हाथ झूठ से सने नहीं।

सत्यमेव जयते हो प्रतिपल, नैतिकता का सार लिए।
आगत का है स्वागत करना, संस्कृति का आधार लिए।

भूले बिसरे गीत सुनाती,
प्यार भरी जग की बातें।
हँसते-रोते हमने खोया,
अनगिन साँसें दिन रातें।

अवशेष सजाना होगा हमको, स्नेह जगत व्यवहार लिए।
आगत का है स्वागत करना, संस्कृति का आधार लिए।

पूरब की लाली से सुंदर,
वर्ष ईसवी सदी गयी
नूतन अनगढ़ भाव व्यंजना,
सुबह हमारी साँझ नयी।

"लता" पुनः नव पत्र संँवारे, हरित प्रभा शृंगार लिए।
आगत का है स्वागत करना, संस्कृति का आधार लिए।

*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

Sunday, 5 January 2025

नव द्वार खोल आए - गीत

 

नव वर्ष आगमन पर नव द्वार खोल आए।
नव भोर की प्रभा में नव राग घोल आए।

निज सोच शुद्ध हो ले कुछ ज्ञान बुद्ध कर लें।
बाटें क्षमा सहज मन निज क्रोध रुद्ध कर लें।
प्रणयी प्रपन्न श्वासें मझधार में बहें जब।
सित भाव तरण तरिणी किंजल सजें रहें तब।
गठरी विकार की हम कर होम डोल आए।
नव वर्ष आगमन पर नव द्वार खोल आए।

अवसाद में घिरी थी जो बात रात थी तम।
आ अक्ष में तिरी वो लहरें विषाद की नम।
मंजरि सनी पवन लय आरुषि बुहार लाई।
महका निलय निरामय शुभ्राभ धार आई।
हम पोटली खुशी की बिन मोल तोल आए।
नव वर्ष आगमन पर नव द्वार खोल आए।

उन्माद में अकारण लंका स्वयं स्व जारी।
हो सत्य से पराभव हैं दर्प अश्व भारी।
संवाद में अमिय रस पुष्पांजली लड़ी हो।
बेड़ी न पाँव में हों न बंध हथकड़ी हो।
मन मुद फिरे वलय में सुख सार बोल आए।
नव वर्ष आगमन पर नव द्वार खोल आए॥

*** सुधा अहलुवालिया

प्रपन्न-शरणागत / किंजल-किनारा / होम-भस्म / निलय-आकाश / निरामय-निष्कलंक / पराभव-हारा हुआ / वलय-शून्य

मुम्बई की एक शाम

  एक शाम मुम्बई महानगर की दिन की आपाधापी थक कर बैठने की प्रक्रिया में है, पर अब शुरू होती है घर वापसी की जद्दो जहद, लोकल ट्रेन में घुसने की ...