चन्द्रमुख से आवरण सरकाइए।
रश्मिघट भर चाँदनी बरसाइए।
सुरमई सी रात काली कोठरी है।
जलद घन में दामिनी दमकाइए।
नैन भींचे आप कितना बोलती हैं
बिन छुए मन अर्गला को खोलती हैं।
मनस दर्पण मौन, कैसे आ गई यों।
पंख खोले व्योम मन पर छा गई यों।
चित्त विस्मित, और मत बहकाइए।
चन्द्रमुख से आवरण सरकाइए।
आप का सानिध्य मंजुल अल्प सा है।
एक मुट्ठी पल समेटे कल्प सा है।
मौन है ऋतुराज रूठी वेदना क्यों।
ऊष्म श्वासों में पिघलती चेतना ज्यों।
चाँदनी सित हिमानी ढलकाइए।
चन्द्रमुख से आवरण सरकाइए।
तू अमा को ओढ़ बैठी है निगोड़ी।
बाँध डोरी ज्योति में है ज्योति जोड़ी।
घूँघटा खोलो प्रिये फैले जुन्हाई।
हो रही क्यों विरह के स्वर की बुनाई।
पार्श्व से आखेट कर मत जाइए।
चन्द्रमुख से आवरण सरकाइए।
*
*** सुधा अहलुवालिया
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