सांध्य की शोभा निराली स्वर्णमय प्रति पर्ण है।
घट रजत उल्टा पड़ा बिखरा चतुर्दिक स्वर्ण है।
कर्म का संदेश दे खुद कर्म ही आराधते,
चित्त आनन्दित रहे मन है युवा नहि जर्ण है।
सांध्य की शोभा निराली स्वर्णमय प्रति पर्ण है।
हों उदित सविता बिखेरें रश्मियाँ पाटल रचित,
जागते हैं प्राणिजन व्यवसाय वे साधें उचित,
मुस्कराते पुष्प अरु उद्यान मय सब वर्ण है।
सांध्य की शोभा निराली स्वर्णमय प्रति पर्ण है।
देख कर अवसान वेला का विभव जन-मन चकित,
खेद किंचित भी नहीं रवि की किरण सोना खचित,
मुस्कराहट युग अधर से है खिची आकर्ण है।
सांध्य की शोभा निराली स्वर्णमय प्रति पर्ण है।
*** डॉ. राजकुमारी वर्मा
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