Sunday 19 March 2023

एक ग़ज़ल - बहारों के शह्र में

 



सोचा था जा रहे हैं बहारों के शह्र में
हमने बिताई रात शरारों के शह्र में

हर शख़्स ख़ुद से ही लगे रूठा हुआ सा क्यों
आया नज़र न कोई नज़ारों के शह्र में

सूरज ने क़ैद कर लिया हर एक जुगनू को
संगीन कल थी रात सितारों के शह्र में

बस इश्क़ करने वाले ही रह सकते हैं वहाँ
हम भी लुटे हैं जाके इशारों के शह्र में

ईंटों ने लड़ के नींव से घर कर दिया मकां
मेरा भी एक घर था दरारों के शह्र में

अरसा हुआ कहे सुने दो मीठे बोल, हम
फूलों को छोड़ बस गए ख़ारों के शह्र में

साया भी साथ दे तो गनीमत ही है रजत
जीते हैं सब अकेले हज़ारों के शह्र में

*** गुरचरन मेहता 'रजत'

No comments:

Post a Comment

श्रम पर दोहे

  श्रम ही सबका कर्म है, श्रम ही सबका धर्म। श्रम ही तो समझा रहा, जीवन फल का मर्म।। ग्रीष्म शरद हेमन्त हो, या हो शिशिर व...