Sunday, 11 September 2022

एक गीत - और न कोई चाह


जगा हृदय विश्वास लेखनी, सहज लगेगी राह।
नेक समर्पण चाहत अपनी, और न कोई चाह।

ज्ञानी ध्यानी विज्ञ चिरंतन, करते आये शोध।
इक नैया में करें सवारी, भार बने जो बोध।
आशा छोड़ निराशा भर दें, व्यर्थ विगत उर दाह
नेक समर्पण चाहत अपनी, और न कोई चाह।

एक नदी दो अलग किनारे, धारा देती जोड़़।
उठती गिरती लहरें देकर, तरल विरल इक मोड़।
कड़ी न टूटे उम्मीदों की, सुंदर हो निर्वाह।
नेक समर्पण चाहत अपनी, और न कोई चाह।

खोल नयन प्रिय रहें नहीं अब, भाग्य भरोसे सुप्त।
आशा नित्य जगानी होगी, स्वप्न न होगें लुप्त।
बंद मुष्टिका रेत रुके कब, "लता" भरें मत आह।
नेक समर्पण चाहत अपनी, और न कोई चाह।


*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी 

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