कण-कण में विलसित सुंदरता, अदभुत रूप सँवारा।
छलक रहा सौंदर्य अनुत्तम, अनुपमेय जग सारा।
दिवस दिवाकर निशा निशापति,
हीरक जटित रश्मियाँ।
मोती तुहिन पुष्प-पल्लव पर,
प्रातः खिलीं लहरियाँ।
हृदय उल्लसित भाव उमंगित, जब यह दृश्य निहारा।
छलक रहा सौंदर्य अनुत्तम, अनुपमेय जग सारा।
डाल-डाल सज गईं मंजरी,
सुरभित है अमराई।
कर्ण मधुर ध्वनि में पिक गाए,
ज्यों बजती शहनाई।
खग कलरव ज्यों वटुक वृंद ने,वैदिक मंत्र उचारा।
छलक रहा सौंदर्य अनुत्तम, अनुपमेय जग सारा।
वृद्धि प्राप्त वन सुषमा रंजित,
पर्ण विटप लतिकायें।
सुभग सरित-तट सिंधु महानद,
आर्द्रिल उपत्यकाएं।
अदभुत मिलन सितासित बहती, पृथक्-पृथक् दो धारा।
छलक रहा सौंदर्य अनुत्तम, अनुपमेय जग सारा।
बना अतुल सौंदर्य सृष्टि का,
कण-कण ईश समाया।
प्राणिमात्र के अमल हृदय को,
निज आवास बनाया।
आत्मभाव सबके प्रति रखना, है सुंदरतम नारा।
छलक रहा सौंदर्य अनुत्तम, अनुपमेय जग सारा।
विशेष: अनुत्तम- सर्वश्रेष्ठ, अप्रतिम
*** डॉ. राजकुमारी वर्मा
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