था अँधेरा घना वृक्ष के गाँव में।
एक आभा झरी मीत की छाँव में।
मैं अकेला चला साथ आया न था।
मीत साथी नहीं प्रेम साया न था।
व्योम गंगा बही मन भिगोती रही।
स्वर लहर गीत में मन डुबोती रही।
चेतना खो गई ईश के पाँव में।
एक आभा झरी मीत की छाँव में।
है मिला आसरा ईश का अंत में।
अब मिले मन सुमन स्नेह से कंत में।
प्रीति माया सभी छूटती जा रही।
बंधनों की लड़ी टूटती जा रही।
अब रमूँ बस वहीं ईश के ठाँव में।
एक आभा झरी मीत की छाँव में।
आज आ ही गया सिन्धु को पार कर।
ईश ले अंक में अब मुझे तार कर।
पंथ था तो कठिन किंतु चलता रहा।
सुख मिले दुख सिये भेद पलता रहा।
अब नहीं जीवनी है किसी दाँव में।
एक आभा झरी मीत की छाँव में।
सुधा अहलुवालिया
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