Sunday 26 December 2021

जीने के लिए

 



जाने
कितनी दुश्वारियों को झेलती
ज़िंदगी
रेंगती हसरतों के साथ
ख़ुद भी रेंगने लगती है।
हर क़दम
जीने के लिए ज़ह्र पीती है
हर लम्हा
चिथड़े -चिथड़े होती
आरज़ुओं के पैबंद सीती है।
जाने कब
वक़्त
ज़िंदगी की पेशानी पर
बिना तारीख़ के अंत की
एक तख़्ती लगा जाता है
उस तख़्ती के साथ
ज़िंदगी रोज़
अवसान के लिए जीती है।
रोज़
जीने के लिए मरती है।

सुशील सरना

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