जाने
कितनी दुश्वारियों को झेलती
ज़िंदगी
रेंगती हसरतों के साथ
ख़ुद भी रेंगने लगती है।
हर क़दम
जीने के लिए ज़ह्र पीती है
हर लम्हा
चिथड़े -चिथड़े होती
आरज़ुओं के पैबंद सीती है।
जाने कब
वक़्त
ज़िंदगी की पेशानी पर
बिना तारीख़ के अंत की
एक तख़्ती लगा जाता है
उस तख़्ती के साथ
ज़िंदगी रोज़
अवसान के लिए जीती है।
रोज़
जीने के लिए मरती है।
सुशील सरना
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