बड़ी विकट राहें हैं लगती , जहाँ कहीं इस जीवन की।
कितनी साधें सूखी अब तक, मत पूछो अंतर्मन की।।
नील गगन का पाखी बनके, मन पंछी दौड़ा करता ।
समरांगन में निर्भीक बना, अपनी छाती चौड़ी करता।
पूछ हाल हारे योद्धा से, हृदयांगन के क्रन्दन की।
कितनी साधें सूखी अब तक, मत पूछो अंतर्मन की।।
आशातीत सफलता पाकर, लगते हैं सब इठलाने।
खुशियों की हलचल होती तो, सब लगते हैं इतराने।
स्रावित होती निष्प्राण सुरभि, मलय पवन में चंदन की।
कितनी साधें सूखी अब तक, मत पूछो अंतर्मन की।।
साहस बल से जीत सकोगे, इस अवनि और अंबर को।
विश्वास डोर की थाम तभी, लांघ सकोगे सागर को।
कर्मशील को नहीं जरुरत, नदी किनारे तर्पण की।
कितनी साधें सूखी अब तक, मत पूछो अंतर्मन की।।
पंकज सम इस जीवन की है, जड़े तैरती पानी में।
कितनी भूलें हो जाती हैं, मानव से नादानी में।
बैठ किन्तु नाविक तरिणी में, राग छेड़ता अर्पण की।
कितनी साधें सूखी अब तक, मत पूछो अंतर्मन की।।
*** साधना कृष्ण ***
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