उमंग प्राण में भरे बसन्ती।
बसन्त पंचमी करे बसन्ती॥
प्रसून-प्रीति से सजी लताएँ।
समस्त भृंग-वृंद गीत गाएँ॥
कली हरेक आज मुस्कुराती।
हवा चली सुगंधियाँ लुटाती॥
तरंग प्राण से झरे बसन्ती।
बसन्त पंचमी करे बसन्ती॥
समस्त प्यार मुक्त हस्त दाता।
बसन्त साथ ही अनंग आता॥
नवीन रंग से सजा धरा को।
बसन्त ने लिया लुभा हिया को॥
रती* अनंग जी हरे बसन्ती। (*प्रेमी)
बसन्त पंचमी करे बसन्ती॥
लुटा दिया पराग कोष सारा।
सदैव दान धर्म शीष धारा॥
सिखा रही हमें यही धरा है।
परोपकार कर्म ही खरा है॥
बसन्त ! रंग आज रे! बसन्ती।
बसन्त पंचमी करे बसन्ती॥
*** कुन्तल श्रीवास्तव, मुम्बई ***
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