Sunday, 7 June 2020

दुविधा रही अपार



सत्य असत्य धर्म कर्मों की, महिमा अपरम्पार।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।

सर्ग-विसर्ग सृजन में ब्रह्मा, स्वयं सन गए कीच।
कर्मफलों का अलिखित लेखा, उत्तम मध्यम नीच।।
कृष्ण कर्ण कृष्णा कालिंदी, जीते आँखें मींच।
सदा किया लज्जित जगती ने, वसन बदन के खींच।।

धर्मराज को श्वान ले गया, नाक लोक के पार।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।

सिंहासन सजता लाशों से, ढोती जनता भार।
आदेशों की पोथी बाँचे, बना गले का हार।।
सीता और अहिल्या हारी, मिला न कोई कूल।
अब भी पथ में भटक रही हैं, पाँव चुभे हैं शूल।।

खंडित प्रतिमाएँ गंगा में, नूतन का शृंगार।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।

हिंसा और अहिंसा दोनों, गातीं अपने राग।
करके तन मन के दो हिस्से, बाँट रही हैं भाग।।
सुख शय्या पर पड़े पड़े ही, थककर सोया काम।
मन्दिर की घंटी कहती है, हारे को हरि नाम।। 

दोनों हाथ बाँध रोटी से, वे करते मनुहार।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।। 

डॉ. मदन मोहन शर्मा
सवाई माधोपुर, राज.

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