Sunday, 28 June 2020
वर्षा ऋतु पर दोहे
वर्षा ऋतु में छा गई, हरियाली चहुँ ओर।
बादल घिरते देख कर, नाचे वन में मोर।।
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घन-घन गरजें बादरा, बरखा छमछम रात।
सूखी धरती फिर सजी, हरियाली सौगात।।
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तपती धरती जल रही, सूख रहे सब पात।
हवा गर्म लू चल रही, जल बिन कछु नहिं भात।।
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बेटा तो परदेस में, अँखियाँ जल बरसात।
बूढ़ी आँखें थक रहीं, दुख की रूई कात।।
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धुआँधार वर्षा हुई, कहीं आ गई बाढ़।
त्रस्त हुआ जीवन सभी, भारी हुआ अषाढ़।।
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बाग़ों में झूले पड़े, रिमझिम है बरसात।
लँहगा, चूड़ी, करधनी, साजन की सौग़ात।
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झुलस गई हैं तितलियाँ, मौसम के आघात।
बादल काले दे गये, आँखों में बरसात।।
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पकी फ़सल पर पड़ गई, ओलों की बरसात।
सहना होगा इस बरस, फाकों का आघात।।
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*** रीता ठाकुर ***
*** अमेरिका ***
Sunday, 21 June 2020
आज देश की सीमाओं पर
आज देश की सीमाओं पर, जूझ रहे हैं वीर हमारे।
नीति नियंता मौन हुए क्यों, राजनीति के धीर हमारे।।
जब जब भारत के वीरों ने, रण का कौशल दिखलाया है।
तब तब भारत माता ने ख़ुद, पाठ चीन को सिखलाया है।।
डोकलाम हो या फिर कोई, भी घाटी हो आज हमारी।
विस्तारक नीतियाँ बनाता, पंचशील का क्रूर पुजारी।।
घाटी है गलवान हमारी, भ्रम तेरा हम दूर करेंगे।
वीर शिवाजी के वंशज हैं, अहंकार को चूर करेंगे।।
बीसों सैनिक तूने मारे, पापी तुझको लाज न आयी।
रणभेरी अब गूँज उठी है भारत ने ली है अंगड़ाई।।
पूरा देश समुद्यत होकर, चीन तुझे ललकार रहा है।
भारत माँ का कण-कण मिलकर चीन तुझे दुत्कार रहा है।।
आज अंजना शब्दघोष, करती है, वीरो! आगे बढ़ लो।
अत्याचारी क्रूर दरिंदों, के सिर पर हिम्मत से चढ़ लो।।
*** डॉ. अंजना सिंह सेंगर ***
तब तब भारत माता ने ख़ुद, पाठ चीन को सिखलाया है।।
डोकलाम हो या फिर कोई, भी घाटी हो आज हमारी।
विस्तारक नीतियाँ बनाता, पंचशील का क्रूर पुजारी।।
घाटी है गलवान हमारी, भ्रम तेरा हम दूर करेंगे।
वीर शिवाजी के वंशज हैं, अहंकार को चूर करेंगे।।
बीसों सैनिक तूने मारे, पापी तुझको लाज न आयी।
रणभेरी अब गूँज उठी है भारत ने ली है अंगड़ाई।।
पूरा देश समुद्यत होकर, चीन तुझे ललकार रहा है।
भारत माँ का कण-कण मिलकर चीन तुझे दुत्कार रहा है।।
आज अंजना शब्दघोष, करती है, वीरो! आगे बढ़ लो।
अत्याचारी क्रूर दरिंदों, के सिर पर हिम्मत से चढ़ लो।।
*** डॉ. अंजना सिंह सेंगर ***
Sunday, 14 June 2020
कहीं से हल निकालेंगे
दिलासे दिल को मिल जायें कहीं से हल निकालेंगे
कपोतों को उड़ा कर ही जिगर का चैन पा लेंगे
हमीं से मुश्किलें सारी हमीं हैं राहतें सबकी
हमीं लथपथ पसीने से हमीं गंगा नहा लेंगे
नहीं सुनता किसी की आदमी जब भीड़ होता है
अमन की तख़्तियों वाले ही पत्थर भी उछालेंगे
अभी इस बाढ़ में डूबे को तिनके का सहारा है
सियासतदान अपने कीमती आँसू बहा लेंगे
वही हम हैं नहीं जो चूकते मौकापरस्ती में
जिन्हें परवाज़ दी हमने उन्हें पिंजड़ों में डालेंगे
गुनाहों की सज़ाएँ भी मुकर्रर खुद ही रहती हैं
अभी शर्मिंदगी में क्या ख़ुदा से बख़्शवा लेंगे
किसी तकलीफ़ में ही दिल हमारा पाक रहता है
कबूतर की सहज पाकीज़गी को हम निभा लेंगे
*** मदन प्रकाश सिंह ***
Sunday, 7 June 2020
दुविधा रही अपार
सत्य असत्य धर्म कर्मों की, महिमा अपरम्पार।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।
सर्ग-विसर्ग सृजन में ब्रह्मा, स्वयं सन गए कीच।
कर्मफलों का अलिखित लेखा, उत्तम मध्यम नीच।।
कृष्ण कर्ण कृष्णा कालिंदी, जीते आँखें मींच।
सदा किया लज्जित जगती ने, वसन बदन के खींच।।
कर्मफलों का अलिखित लेखा, उत्तम मध्यम नीच।।
कृष्ण कर्ण कृष्णा कालिंदी, जीते आँखें मींच।
सदा किया लज्जित जगती ने, वसन बदन के खींच।।
धर्मराज को श्वान ले गया, नाक लोक के पार।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।
सिंहासन सजता लाशों से, ढोती जनता भार।
आदेशों की पोथी बाँचे, बना गले का हार।।
सीता और अहिल्या हारी, मिला न कोई कूल।
अब भी पथ में भटक रही हैं, पाँव चुभे हैं शूल।।
आदेशों की पोथी बाँचे, बना गले का हार।।
सीता और अहिल्या हारी, मिला न कोई कूल।
अब भी पथ में भटक रही हैं, पाँव चुभे हैं शूल।।
खंडित प्रतिमाएँ गंगा में, नूतन का शृंगार।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।
हिंसा और अहिंसा दोनों, गातीं अपने राग।
करके तन मन के दो हिस्से, बाँट रही हैं भाग।।
सुख शय्या पर पड़े पड़े ही, थककर सोया काम।
मन्दिर की घंटी कहती है, हारे को हरि नाम।।
करके तन मन के दो हिस्से, बाँट रही हैं भाग।।
सुख शय्या पर पड़े पड़े ही, थककर सोया काम।
मन्दिर की घंटी कहती है, हारे को हरि नाम।।
दोनों हाथ बाँध रोटी से, वे करते मनुहार।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।
विकल खड़े हम दोराहे पे, दुविधा रही अपार।।
डॉ. मदन मोहन शर्मा
सवाई माधोपुर, राज.
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