Sunday, 16 February 2020

नैन थके असहाय से




पलक पाँवडे़ बिछा दिये
नैन थके असहाय से -
फिर विकल से प्राण मेरे!
प्रीति के व्यवसाय से।


हूँ नहीं मजबूर फिर भी -
उथल-पुथल हो श्वांस की
तोड़ कर प्राचीर निकलूँ
खिन्न हृदय अहसास की
मजबूरियों का नाम दे
किया गया हर कर्म है -
सिलसिले चलते रहेंगे
यूँ ही चले अध्याय से।


नित ढो रहे लाचारियाँ
मन क्षुब्धता अनंत है
मिथ्या जगत को मानते
बस जनश्रुति ये दंत है।
लहर-लहर पर रह गयी,
हर कामना आलोक की
गहन हुआ सागर तो क्या?
सत्य सधा समवाय से।


होगी शलभ सी साधना
दीप-शिखा हँस-हँस जले
हर आदमी लाचार क्यों,
मायूसियाँ क्यों न गले?
जीव हो फिर जीव बंधन
मानना होगा हमें यह,
बाँट लें हर दर्द अपना
मानवता संकाय से।


*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी ***

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