Sunday, 28 April 2019

सुनो सखी री


लोभी हूँ मैं, सुनो सखी री, अजब लगा यह रोग है।
लोभ सजन के घर जाने का, बोलो! कब संयोग है।


लोभ नहीं है रंगमहल का, कुटिया में रह लूँगी मैं।
कनक करधनी बिना नौलखा, प्रीतम को गह लूँगी मैं।
प्रीत पगे साजन के बयना, मेरा छप्पन भोग है।
लोभी हूँ मैं सुनो सखी री, अजब लगा यह रोग है।


लोभ एक ही शेष बचा है, साजन के घर जाने का।
आलिंगन में लेकर उनको, सारी उमर रिझाने का।
बिन साजन के सच कहती हूँ, जीवन मेरा जोग है।
लोभी हूँ मैं सुनो सखी री, अजब लगा यह रोग है।


अपनी चूनर डाल सजन जी, जिस दिन घर ले जाएँगे।
अष्टसिद्ध,नवनिधि की थाती, हम खुद ही पा जाएँगे।
फिर न लोभ होगा कोई, पर साजन बिना वियोग है।
लोभी हूँ मैं सुनो सखी री, अजब लगा यह रोग है।


*** सुनीता पाण्डेय 'सुरभि' ***


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