आकर घर में खुशियाँ कैसे, मेरी रिश्तेदार बने।
कैसे खेलूँ खेल-खिलौने, कैसे घर त्योहार मने।।
इन आँखों में आकर सपने, इच्छाओं को छलते हैं।
पीड़ा के पैगम्बर सारे, इन नयनों में पलते हैं।।
काश कभी हम दीनों का भी, कोई पालनहार जने।
कैसे खेलूँ खेल-खिलौने, कैसे घर त्योहार मने।।
भूखे उठना, भूखे सोना, पड़ा दुखों का डेरा है।
अक्सर ही कुनबे में मेरे, करे भूख पग फेरा है।।
कैसे जिएँ बताओ कोई, पास नहीं जब यार चने।
कैसे खेलूँ खेल-खिलौने, कैसे घर त्योहार मने।।
यही राम की है धरती क्या, यही कर्ण की थाती है।
यहीं प्रज्वलित रही भला क्या, दया-धर्म की बाती है।।
यहीं मिले क्या कृष्ण-सुदामा, उत्तर के व्यवहार घने।
कैसे खेलूँ खेल-खिलौने, कैसे घर त्योहार मने।।
*** अनुपम आलोक ***
No comments:
Post a Comment