सभी की इस उमर की जब जहाँ भी शाम ढलती है
अधूरी चाह रह रह के सदा मन में मचलती है
न बचती शेष तन ताकत नहीं मन दम अजी बचता
नज़र से देख के ही फिर अजी इच्छा बहलती है
ढले जब आयु का सूरज न मिलती जोश की गर्मी
कभी नज़रें बहकती हैं कभी रसना बहकती है
उमर भी चीज़ क्या यारो बढ़ाने की ललक सब में
मगर घटती सदा ये तो कभी यारो न बढ़ती है
नहीं पूछो कभी भी तुम कि बाला क्या उमर तेरी
करे जम के खिंचाई वो अजी खुल कर भड़कती है
युवा जमकर बिदकते हैं दिखे कोई अगर बूढ़ा
नहीं हों वे कभी बूढ़े युवा मन सोच पलती है
गिरे सब दाँत पर चाहत चने को है चबाने की
इसे पा लें उसे छू लें उमर हर बार छलती है
*** अवधूत कुमार राठौर ***
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