Sunday, 30 December 2018

तृण का भार




पर्वत को मैंने छेड़ा
ढह गया।
दूर कहीं से
एक तिनका आया
पथ बाँध गया।
बड़ी-बड़ी बाधाओं को तो
हम
यूँ ही झेल लिया करते हैं
पर कभी-कभी
एक तृण छूता है
तब
गहरा घाव कहीं बनता है
अनबोले संवादों का
संसार कहीं बनता है
भीतर ही भीतर
कुछ रिसता है
तब मन पर
पर्वत-सा भार कहीं बनता है।
 

*-*-*-*-*-
*** कविता सूद ***


1 comment:

मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना - एक गीत

  हो कृपा की वृष्टि जग पर वामना । मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥ नाव मेरी प्रभु फँसी मँझधार है, हाथ में टूटी हुई पतवार है, दूर होता ...