Monday 17 December 2018

एक नज़्म

 


ये दिल का दरिया उफन-उफन कर हसीन आंखों में आ गया है,
फलक़ पे तस्वीर तेरी-मेरी उभर रही है यूँ रफ्ता रफ़्ता,
नशीली शब ने कि फ़िल्म कोई बनाई जैसे हो आशिक़ी पर।
सुलगती सांसों का पैरहन दे कि जिस्म ने रूह को छुआ है।
ये मौज़ ए दरिया, तड़पता साहिल, है तेरी यादों की शोख़ महफ़िल,
मेरे ख़यालों में बज रहे हैं किसी की चाहत के भीगे नग्मे।
तड़प के उल्फ़त ने आँख खोली, समेटने को ये शोख़ मंज़र,
मगर ये किसने मिटा दिया है फलक़ पे तारी हसीं नज़ारा,
तेरे-मेरे अक्स पर न जाने, ये कौन बन के घटा है छाया,
ये किसने फेरी सियाह कूची, ये कौन बन के विलन खड़ा है।
अधूरी है दास्तान ए उल्फ़त कि फ़िल्म डब्बे में जा पड़ी है।
अधूरी रीलों पे रह गया है लिखा हुआ नाम तेरा-मेरा।
भरी जवानी में मर गए हैं कि जैसे क़िरदार दास्तां के,
उफन-उफन कर ये दिल का दरिया मना रहा है कि सोग कोई।
खड़े किनारे पे सोचता हूँ कोई तो आएगा दिल का गाहक,
खरीद लेगा जो दर्द ओ ग़म की, अधूरी रीलें, अधूरे सपने, 

बनेगी चाहत की फ़िल्म फिर से कि आशिक़ी भी जवान होगी,
थियेटरों में वो दिल के चढ़कर मचाएगी धूम एक दिन फिर।
लिखेगा फिर से फलक़ कहानी तेरी-मेरी जान आशिक़ी पर

...हाँ ... तेरी-मेरी जान आशिक़ी पर...

*** दीपशिखा ***

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