दीप-जीवन, ज्योति प्रभु की प्रज्ज्वलित है।
नेह-घृत में आत्म-बाती आगलित है॥
ज्योति-घट छलका बना अस्तित्व तेरा।
मातु-पितु से है सुभग सुकृतित्व तेरा।
है उन्ही की रोशनी तुझको मिली जो।
डाल अब कुछ नेह तू भी लौ चली वो।
धुन्ध बन कर दीप बुझता शुचि ललित है॥
है बुझा दीपक किसी का अमर हो कर।
जी गया वह जिन्दगी को मृत्यु बो कर।
हौसलों की आग में जलता रहा जो।
आँधियों के मध्य भी पलता रहा वो।
वीर सैनिक-दीप भारत का फलित है॥
आस-दीपक गुल, सबेरा है किसी का।
करुण-आभा में बसेरा है किसी का।
हम चिरागों को जलालें आज ऐसे।
चन्द्र की सोलह कला का साज जैसे।
ज्ञान का ही दीप जीवन में कलित है॥
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*** सुधा अहलूवालिया ***
(आगलित - भीगी हुई)
मातु-पितु से है सुभग सुकृतित्व तेरा।
है उन्ही की रोशनी तुझको मिली जो।
डाल अब कुछ नेह तू भी लौ चली वो।
धुन्ध बन कर दीप बुझता शुचि ललित है॥
है बुझा दीपक किसी का अमर हो कर।
जी गया वह जिन्दगी को मृत्यु बो कर।
हौसलों की आग में जलता रहा जो।
आँधियों के मध्य भी पलता रहा वो।
वीर सैनिक-दीप भारत का फलित है॥
आस-दीपक गुल, सबेरा है किसी का।
करुण-आभा में बसेरा है किसी का।
हम चिरागों को जलालें आज ऐसे।
चन्द्र की सोलह कला का साज जैसे।
ज्ञान का ही दीप जीवन में कलित है॥
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*** सुधा अहलूवालिया ***
(आगलित - भीगी हुई)
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