मानव मन
के गाँव में, व्यथा बड़ी है एक।
चिरंजीव हो क्रोध ने, खंडित किया विवेक।।
चिरंजीव हो क्रोध ने, खंडित किया विवेक।।
क्रोधाग्नि
जब-जब जली, अंहकार के गाँव।
निर्वासित तब-तब हुए, सद्भावों के पाँव।।
निर्वासित तब-तब हुए, सद्भावों के पाँव।।
देश-धर्म
की आन हित, करना वाजिब क्रोध।
जयचंदों को हो सके, राष्ट्रप्रेम का बोध।।
जयचंदों को हो सके, राष्ट्रप्रेम का बोध।।
जग में
पाया क्रोध ने, सदा सतत् अपमान।
रावण सा विद्वान भी, रह न सका गतिमान।।
रावण सा विद्वान भी, रह न सका गतिमान।।
काम,क्रोध,मद,मोह का, जीवन है दिन चार।
अमर जगत में है सदा, नेह सृजित व्यवहार।।
अमर जगत में है सदा, नेह सृजित व्यवहार।।
*** (अनुपम आलोक)***
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