Sunday, 28 January 2018

त्रिभंगी छंद


 
= 1=


दिल धेले भर का, घाट न घर का, चादर सरका, मुँह खोले।
बरसों का मारा, टूटा तारा, फिर से हारा, क्या बोले।।
खुद ही बौराया, समझ न पाया, क्यों है जाया, प्रश्न करे।
चारों दिशि ताके, गलियाँ झांके, खाली पा के, धीर धरे।।


= 2 =

हैं घाट न घर के, बातों भर के, सुन सुन कर के, कान पके।
उलझन को गुनते, सहते-सुनते, रस्ते चुनते, प्राण थके।।
पिसकर पाटों में, सब घाटों में, बिक हाटों में, छले गए।
रिश्ते सब टूटे, रहबर छूटे, मीत अनूठे, चले गए।।


- मदन प्रकाश

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