सूरज घर पर आग तापता,
धुँधला धुँधला पड़े दिखाई।
हुआ तुषारा पात, पीत-सरसों मुरझाई।
ऊपर से ये मुई, शीत ऋतु की पुरवाई।।
जड़ चैतन्य हुए सब जड़वत,
साथ छोड़ भागी परछाई।
लौह पुरुष सी रेल, सिहरती पड़े दिखाई।
हाड़ माँस की देह, काँपती ओढ़ रजाई।।
थमती कहाँ समय की सुइयाँ,
आख़िर खाई कौन दवाई।
भूख खेलती खेल, मनुज को रेल बनाई।
छोड़े मुँह से वाष्प, पैर दो पहिए भाई।।
आधी आबादी की आशा,
धूप पूरती बाँट रजाई।
***** गोप कुमार मिश्र
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