Sunday, 3 December 2017

यह कैसा इन्तिज़ार

 


हार गया हूँ प्रेमनगर मैं अपने नीति-निधान का,
इन्तिज़ार अब मुझको केवल साँसों के अवसान का।


सपनों का स्पंदन टूटा भाव प्रेम के सिसक रहे,
धूल-धूसरित प्रणय पताका, अंतस के पट झिझक रहे,
युग सिमटा है पल में आकर मेरे कर्म विधान का,
इन्तिज़ार अब मुझको केवल साँसों के अवसान का।


चक्रवात सा दर्द घुमड़ यूँ जीवन के पथ पर आया,
आँखों का गंगाजल बहकर सागर खारा कर आया,
सावन बनकर विरह बरसता मुझपर आज जहान का,
इन्तिज़ार अब  मुझको केवल साँसों के अवसान का।


सप्तपदी के सात जन्म हित सातों वचन भुलाकर वह,
सातों अंबर पार कर गया तन्हा मुझे सुला कर वह,
हुआ दर्द से रिश्ता अविचल मेरे हर अनुमान का,
इन्तिज़ार अब मुझको केवल साँसों के अवसान का।


***** अनुपम आलोक

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