Sunday, 5 November 2017

सपना रहा अधूरा


लड़ता रहा युद्ध जीवन का,
सपना रहा अधूरा मन का।

सुख धन दौलत खूब बटोरा,
याद भूलकर अपने तन का,
ढली उम्र तब दुख के बादल,
भूल गया अभिमान बदन का।

घात करें विश्वास बनाकर,
मुख से मीठा काले मन का,
हुआ तभी बदनाम विभीषण,
जैसे भेद खुला रावण का।

संतो की शक्लो में बैठा,
ढोंगी दुश्मन आज चमन का,
जाल बिछाता कदम कदम पर,
करता है लालच नित धन का।

मातृभूमि की सेवा में नित,
निरत पुष्प है इस उपवन का,
अटल अखंडित भारत वासी,
अडिग हमेशा अपने प्रण का।

हम अपनी सीमा के रक्षक,
हमें नहीं डर है जीवन का,
चाहे जो आतंक पसारों,
नहीं बुझेगा दीप अमन का।

भीमराव झरबडे "जीवन" बैतूल

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