पुराने
दिन कभी इस पेड़ के भी,
थे जवानी के।
बसंती किसलयों ने थे,
दिए हँसकर मृदुल गहने,
लजीली फूँल गंधों संग,
हवाएँ थी लगी बहने।
यहीं पर,
खेलता था खेल सावन,
धूप पानी के।
सवेरे व्योम पाँखी,
डाल पत्ती पर उतरते थे,
दिशाओं में मधुर संगीत,
के सरगम सँवरते थे।
यहीं पर,
दीप जलते मंत्र पढ़ते,
माँ भवानी के।
समय गुज़रा कि दिन बदले,
हवा बदली झरे पत्ते,
हुई कंकाल देही पर,
हवाओं के वही रस्ते।
हुए बस,
फूल फल तन पात्र अब,
किस्से कहानी के।
*** बृजनाथ श्रीवास्तव
दिन कभी इस पेड़ के भी,
थे जवानी के।
बसंती किसलयों ने थे,
दिए हँसकर मृदुल गहने,
लजीली फूँल गंधों संग,
हवाएँ थी लगी बहने।
यहीं पर,
खेलता था खेल सावन,
धूप पानी के।
सवेरे व्योम पाँखी,
डाल पत्ती पर उतरते थे,
दिशाओं में मधुर संगीत,
के सरगम सँवरते थे।
यहीं पर,
दीप जलते मंत्र पढ़ते,
माँ भवानी के।
समय गुज़रा कि दिन बदले,
हवा बदली झरे पत्ते,
हुई कंकाल देही पर,
हवाओं के वही रस्ते।
हुए बस,
फूल फल तन पात्र अब,
किस्से कहानी के।
*** बृजनाथ श्रीवास्तव
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