धर्म मानता खेती को ही, लिए फावड़ा जोते खेत।
बैलों की जोड़ी को पूजे, सोना उगले जिसकी रेत।।
बूँद-बूँद को आज तरसते, खाली अब सारे नल-कूप।
शहरों ने जब पाँव-पसारे, उजड़ गए खेतों के रूप।।
शीत काँपता था जिससे ही, दबा वही अब आज किसान।
आतप ठण्डा पड़ जाता था, बिगड़ गये उसके दिनमान।।
खेत उगलता सोना जिसका, भूखों मरता वह इंसान।
सदा उदर दुनिया का भरता, क्यों रूठे उससे भगवान।।
हृदय सभी का विचलित दिखता, भारी मन से हुए उदास।
गाँव चला ले झोले झंडे, हुआ गाँव का यहाँ विनाश।।
देख बिखरते सपने सबके, उजड़ गये जब सारे खेत।
रुके न आँसू चलते चलते, चूम रहे माथे से रेत।।
***** लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
आतप ठण्डा पड़ जाता था, बिगड़ गये उसके दिनमान।।
खेत उगलता सोना जिसका, भूखों मरता वह इंसान।
सदा उदर दुनिया का भरता, क्यों रूठे उससे भगवान।।
हृदय सभी का विचलित दिखता, भारी मन से हुए उदास।
गाँव चला ले झोले झंडे, हुआ गाँव का यहाँ विनाश।।
देख बिखरते सपने सबके, उजड़ गये जब सारे खेत।
रुके न आँसू चलते चलते, चूम रहे माथे से रेत।।
***** लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
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