बुद्धिराज, गणराज विराजे, वर माँगें सब शीश नवाय।
चढ़े प्रसादी मोदक, केला, खूब मज़े से 'मुसवा' खाय।।
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एकदंत की महिमा न्यारी, नर- नारी सब करें बखान।
बड़े दुलारे शिवशंकर के, मैया पारवती की जान।।
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नहीं किसी को चैन जगत में, घर-घर में नाना जंजाल।
सबकी यही अपेक्षा होती, गणपति कर दें मालामाल।।
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कुछ आयोजक अति उत्पाती, माँग रहे चंदा धमकाय।
झूमें-नाचें ख़ूब नशे में, फूहड़ गाने रहे बजाय।।
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नहीं शुद्ध मन से करते हैं, लोगबाग अब तो शुभ काज।
नैतिकता का हुआ पतन है, 'राज' अनैतिक आज समाज।।
***** राजकुमार धर द्विवेदी
मेरी रचना को इस प्रतिष्ठित ब्लॉग पर जगह मिली। इसके लिए आदरणीय सपन जी और रजत को सादर नमन
ReplyDeleteबहुत-बहुत बधाई आपको आदरणीय.
Deleteबहुत सुंदर स्तुति
ReplyDeleteदिल से आभार आपका आदरणीया.
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