Sunday 7 August 2016

अपनी कुटिया अपनी छानी


तंग दिलों से तो सच्ची है
बंद घरों से तो अच्छी है
अपनी कुटिया अपनी छानी


छप्पर टपके नेह मेह बन
घर बखरी में तिरते बर्तन
चढ़ी समीरन बारिस बूँदे
भर जाती मेरा घर निर्जन
मानो चलकर ख़ुद आया हो
याचक द्वारे वारिद दानी
अपनी कुटिया अपनी छानी


सीली सीली कुर्ती पहने
भाभी तेरी छैल-छबीली
शोख तपिश तन-मन दे जाती
तिरछी चितवन नैन कटीली
राजमहल सी लगती टपरी
मै राजा वो मेरी रानी
अपनी कुटिया अपनी छानी


बूढ़ा बरगद होता गदगद
महके जब भी मादक पाटल
नीर-क्षीर की बूँद नाचती
पहन पवन की रुनझुन पायल
मन सन्यासी गीत सुनाता
छप्पर बरसे भीगे पानी
अपनी कुटिया अपनी छानी


***** गोप कुमार मिश्र

No comments:

Post a Comment

छंद सार (मुक्तक)

  अलग-अलग ये भेद मंत्रणा, सच्चे कुछ उन्मादी। राय जरूरी देने अपनी, जुटे हुए हैं खादी। किसे चुने जन-मत आक्रोशित, दिखा रहे अंगूठा, दर्द ...