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वर्तमान विश्व पर प्रासंगिक मुक्तक
गोला औ बारूद के, भरे पड़े भंडार, देखो समझो साथियो, यही मुख्य व्यापार, बच पाए दुनिया अगर, इनको कर दें नष्ट- मिल बैठें सब लोग अब, करना...

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पिघला सूर्य , गरम सुनहरी; धूप की नदी। बरसी धूप, नदी पोखर कूप; भाप स्वरूप। जंगल काटे, चिमनियाँ उगायीं; छलनी धरा। दही ...
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जब उजड़ा फूलों का मेला। ओ पलाश! तू खिला अकेला।। शीतल मंद समीर चली तो , जल-थल क्या नभ भी बौराये , शाख़ों के श्रृंगों पर चंचल , कुसुम-...
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह क्या बात है सपन जी भाई साहब... बहुत ही सुन्दर ढंग से देश प्रेम के भावों को आपने यहाँ पंक्तिबद्ध किये हैं... बधाई आपको... सादर वंदे...
ReplyDeleteसुरेन्द्र नवल जी,
Deleteबहुत-बहुत आभार आपका ... आपके शब्द प्रेरित करते हैं ...
सादर नमन