मानव
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(१)
मैं भी मानव हूँ।
एहसास इसका,
इसलिए नहीं होता,
कि परिभाषा के अनुकूल मैं भी हूँ।
बल्कि, इसलिए होता है
क्योंकि मैं भी बेबस हूँ।
(२)
मैं भी मानव हूँ,
मैंने कहा,
सुना उसने,
फिर पूछा,
तुम मानव कैसे हो?
जब मानव, मानव का नहीं रहा,
तो तुम कैसे रहे?
(३)
ख़ुद को ख़ुद ने जाना,
ख़ुद ने पहचाना,
मानव, मानव को कब जानेगा?
मानव, मानव को कब पहचानेगा?
(४)
कौन है यह मानव?
क्या कभी वह जान पाएगा?
कभी इसका उत्तर पहचान पाएगा?
क्या वह कभी मानव का हो पाएगा?
युगों-युगों से यह अनुत्तरित प्रश्न,
क्या कभी उत्तरित हो पाएगा?
क्या यह सवाल, सवाल ही रह जाएगा?
इस अनबूझ पहेली वाली दुनिया में,
जीवन के अनमोल बोल वाली दुनिया में,
जहाँ जीवन का मोल न रह गया हो?
जहाँ मानवता के बोल न रह गए हों?
काश! मानव, मानव को जान पाता,
तो आतंकवाद का साया न छा पाता।
विश्वजीत 'सपन'
HEADS OFF FUFAJI
ReplyDeleteMANAV MANVATA KO BHUL GAYA
KUCH PAYA PAR SAB CHUT GAYA
ABHIMANO KE AADHARO ME AASTITAVO KO BALIDAN HUA
MANVA ,MANVA KA RAHA KUCH PAYA PAR SAB CHUT GAYA
वाह! बहुत-बहुत धन्यवाद.
Deletemanav aaj hai bahut badal gaya,
ReplyDeleterishto se iska bishwaas hai chut gaya,
na parakh rahi ishe apne ki,
ye to dekh kar khushi machal gaya.
by poet er. ankur tyagi
http://www.facebook.com/pages/Poet-Er-Ankur-Tyagi/136212839822247?sk=wall
धन्यवाद, अंकुर त्यागी जी.
ReplyDeleteOf all your poems, this is one of my favourite.
ReplyDeleteSanjay Gupta
Sanjay Gupta ji,
DeleteThank you very much. These words inspire me.
Saadar Naman
मानवता के विभिन्न पहलुओं पर आपने सुन्दर ढंग से अपने भावों को शब्दों में ढालते हुए कलमबद्ध किया है इन रचनाओं में... बहुत बहुत बधाई आपको... सादर वंदे...
ReplyDeleteसुरेन्द्र नवल जी,
Deleteबहुत-बहुत आभार आपका. आपके प्रेरक शब्द मन को तसल्ली देते हैं और भविष्य के लिए प्रेरित करते हैं.
सादर नमन