(1)
मैंने चाहा तुम्हें,
शायद ये मेरी बदक़िस्मती है,
क्या सोचते हो?
मुझे चाहने वाला कोई नहीं?
हर तरफ़ मेरा दीदार सितम ढाता है,
जान न्योछावर हर अदा पर होता है,
मगर, बदनसीबी मेरी,
मैं तुम्हें चाहता हूँ,
और तुम हो कि,
बिला-वजह मिझसे खिंचते हो।
(2)
सोचो ज़रा,
बस एक बार तो सोचो,
बग़ैर तुम्हारे,
मेरी ज़िन्दगी क्या होगी?
एक ठूँठ-सी,
जिस पर न पत्ते उग सकते हैं'
और न ही फूल।
(3)
यह सोचकर तुम,
दो शब्द ख़त में न लिख सके,
कि, मैं तुम्हें भूल पाऊँगा,
मैंने ख़त लिखकर भी,
अपने पास रखा है,
क्या तुमने कभी ऐसे ख़तों का,
दर्द महसूस किया है?
(4)
चलो मान लिया,
मैं तेरा प्यार नहीं,
चलो मान लिया,
मैं तेरे अनुसार नहीं,
लेकिन,
मेरे दिल में जो प्यार है,
वह बस तेरे लिए है,
चाहे कुछ न करो,
कम से कम दीदार तो करने दो।
(5)
अब क्या करूँ?
और कैसे चाहूँ?
जी-जान से चाहता हूँ,
धर्म-ओ-ईमान से चाहता हूँ,
शायद तुम्हें यकीं तभी होगा,
जब मेरी लाश से वस्ता होगा।
विश्वजीत 'सपन'
Very good poems
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार.
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