Sunday, 23 March 2025

"प्रेम का तुम हो समुच्चय" - एक गीत

 

प्रेम का तुम हो समुच्चय प्रेम का प्रतिमान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

कर सके कैसे कलम नारी तुम्हारा आकलन।
माँ बहन बेटी सखी को लेखनी करती नमन।
वेद दृष्टा हो स्वयं ही तुम ऋचा का गान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

तुम कहीं हो उर्मिला सी और वैदेही कहीं।
हो अगम वन या महल तुम शक्ति बन पति की रहीं।
कर दिया यम को पराजित तुम वही पहचान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

देश पर जब आँच आई छोड़ आई आँगना।
हाथ में ले खड्ग लक्ष्मीबाई' सी वीरांगना।
शीश काटे शत्रुओं के देश की तुम शान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

रच रही नूतन कहानी हो रहा जय घोष है।
भर रही निज साधना से शक्ति का शुचि कोष है।
व्योम जल थल के स्वयं ही चढ़ चली सोपान हो।
प्रेम बन कर बह रही जो सृष्टि का अवदान हो।

*** सीमा गुप्ता 'असीम'

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