सूरज की गर्मी पाकर जब बर्फ़ पिघलती है,
गिरि की साँसों के सरगम से नदी निकलती है।
तोड़ शिलाओं के कोरों को निर्मल बनता है,
गदराई घाटी के मुख से झरना गिरता है,
अँजुरी में भर दूध तलैया रूप निरखती है,
पगडण्डी पर उछल मचलकर नदी निकलती है।
कंकर पत्थर रेत कणों से मीठा बतियाती,
फूलों पत्तों के दोनो में मधुरस भर जाती,
जंगल के ऑंगन में आकर खूब सँवरती है,
घाटों से कर ऑंख मिचौली नदी निकलती है।
गाँवों के अल्हड़ यौवन की मादक अठखेली,
नगरों के बासी बर्तन में पिघली गुड़ ढेली,
धूप छाँव के पुलिन जोड़ती छुवन उतरती है,
तब मन मौसम के गोमुख से नदी निकलती है।
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डॉ. मदन मोहन शर्मा
सवाई माधोपुर, राज.
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