स्वयं काल जनु धरे शरीरा।
आए लंक राम रण धीरा।।
जटा जूट भुज पुष्ट अजाना।
देखि रूप रावण भय माना।।
प्रभु कोदंड कीन्ह टंकारा।
शत्रु सैन्य में हाहाकारा।।
रामचंद्र प्रभु छोड़ें तीरा।
बेधे एक अनेक शरीरा।।
सरिता - रक्त बही रण ऐसे।
नग से कीच बहे जानु जैसे।।
देखा राम कीस अकुलाने।
सायक प्रभू कान तक ताने।।
शर संधानि नाभि में मारा।
गिरा धरणि मुख-राम उचारा।।
डोलत मही देखि रघुवीरा।
कई खंड कर दैत्य शरीरा।।
*** चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'
No comments:
Post a Comment