बहन बुआ के बच्चे आते, खेले सब मिलकर स्वच्छन्द।
दादा-दादी माँ-बापू के, किस्से सुन आता आनन्द।।
कभी पड़ोसी तक से हमको, मिलती प्यार भरी फटकार।
बसी आज तक उस घर यादें, .....
जहाँ सभी सदस्य आपस में, सुबह शाम करते हो द्वन्द।
लगे काटने घर की चौखट, लगता पड़ा गले में फन्द।।
बिना प्रेम के खाली आँगन, नहीं कहाता शुभ घर द्वार।
बसी आज तक उस घर यादें, .....
खुशियों से घर आँगन महके, स्वर्ग सरीखा वह आवास।
बजे बाँसुरी जहाँ चैन की, उस घर ही होता उल्लास।।
अपनापन का भान जहाँ हो, मिले तसल्ली उस घर बार।
बसी आज तक उस घर यादें, .....
*** लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला
गीत को सहज साहित्य ब्लाग पर प्रकाशित करने के लिए साधुवाद ।
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