क्रोध में जीव दानव बना दह रहा। आसुरी वृत्तियाँ प्रति घड़ी गह रहा। भावना में घृणा की नदी जो बही। बात मानी नहीं मर्म ने जो कही। जीव ने व्यर्थ कुंठा जनी कृत्य में। चैन खोया सदा दंभ के नृत्य में। बिन विचारे बिना बात श्रम ढह रहा। आसुरी वृत्तियाँ प्रति घड़ी गह रहा। लाज का चादरा है नहीं नैन पे। है नियंत्रण नहीं कोइ भी बैन पे। दोष में लिप्त मन जो स्पृहा ओढ़ ले। रोग है निज बुना आंतरिक कोढ़ ले। कूप मण्डूप नित वेदना सह रहा। आसुरी वृत्तियाँ प्रति घड़ी गह रहा। राक्षसी कर्म में जो रमा ध्यान है। पाप औ पुण्य का भी नहीं ज्ञान है। जान कर जो निभाते नहीं प्रेम को। जीव पाते नहीं वे कभी क्षेम को। मान की नाव ले लोभ में बह रहा। आसुरी वृत्तियाँ प्रति घड़ी गह रहा। * सुधा अहलूवालिया
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