Sunday, 17 February 2019

एक ग़ज़ल


मिले सही हमसफ़र कठिन है मिले कोई हमनज़र* है मुश्किल 
अगर मुहब्बत न ज़ीस्त* में हो तो ज़िंदगी का सफ़र है मुश्किल 
**
कभी ये सोचा जहाँ में कितने बशर ग़रीबी में जी रहे हैं 
नसीब में जिनके छत नहीं और हुआ गुज़र और बसर है मुश्किल 
**
नसीब अच्छा कि है बुरा और लकीरें हाथों में आज कैसी 
रहा है ख़ुद पर जिन्हें भरोसा तो उन पे इनका असर है मुश्किल 
**
मसाफ़तें* मत रखें दिलों में जतन हो सबका हयात भर ये 
वगरना मुमकिन कि आप सबका सुकूं से होना गुज़र है मुश्किल 
**
बशर जतन लाख कर ले फिर भी जनम लिया तो क़ज़ा भी आनी 
अजल* से अब तक यही हुआ है किसी का होना अमर है मुश्किल 
**
मकाँ क़िले या महल किसी के बिना मुहब्बत मज़ारों जैसे 
सुकून-ओ-उल्फ़त न हो जहाँ पर कहें उसी घर को घर है मुश्किल 
**
ग़ुरेज़ मेहनत से जो न करता डरे नहीं जो चुनौतियों से 
हयात में उस को फिर यक़ीनन 'तुरंत' मिलना सिफ़र* है मुश्किल
**
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी


हमनज़र - समान विचारों वाला
ज़ीस्त - जीवन
मसाफ़तें - दूरियां 

अजल - सृष्टि कर प्रारम्भ
सिफ़र - शून्य 

No comments:

Post a Comment

"फ़ायदा"

  फ़ायदा... एक शब्द जो दिख जाता है हर रिश्ते की जड़ों में हर लेन देन की बातों में और फिर एक सवाल बनकर आता है इससे मेरा क्या फ़ायदा होगा मनुष्य...