Sunday, 17 February 2019
एक ग़ज़ल
मिले सही हमसफ़र कठिन है मिले कोई हमनज़र* है मुश्किल
अगर मुहब्बत न ज़ीस्त* में हो तो ज़िंदगी का सफ़र है मुश्किल
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कभी ये सोचा जहाँ में कितने बशर ग़रीबी में जी रहे हैं
नसीब में जिनके छत नहीं और हुआ गुज़र और बसर है मुश्किल
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नसीब अच्छा कि है बुरा और लकीरें हाथों में आज कैसी
रहा है ख़ुद पर जिन्हें भरोसा तो उन पे इनका असर है मुश्किल
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मसाफ़तें* मत रखें दिलों में जतन हो सबका हयात भर ये
वगरना मुमकिन कि आप सबका सुकूं से होना गुज़र है मुश्किल
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बशर जतन लाख कर ले फिर भी जनम लिया तो क़ज़ा भी आनी
अजल* से अब तक यही हुआ है किसी का होना अमर है मुश्किल
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मकाँ क़िले या महल किसी के बिना मुहब्बत मज़ारों जैसे
सुकून-ओ-उल्फ़त न हो जहाँ पर कहें उसी घर को घर है मुश्किल
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ग़ुरेज़ मेहनत से जो न करता डरे नहीं जो चुनौतियों से
हयात में उस को फिर यक़ीनन 'तुरंत' मिलना सिफ़र* है मुश्किल
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी
हमनज़र - समान विचारों वाला
ज़ीस्त - जीवन
मसाफ़तें - दूरियां
अजल - सृष्टि कर प्रारम्भ
सिफ़र - शून्य
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