Sunday, 21 October 2018
कोमल पैरों में - एक कविता
कोमल पैरों में कहीं चुभें दूर्वा के तृण,
इससे डरकर क्या पथ चलना दें त्याग सखे।
मखमल आदत में अगर रहा भी हो शामिल,
क्या पाषाणी सच से हम जाएँ भाग, सखे।।
गीता ने माना, दिए कर्म-उपदेश बहुत,
ठुकरा दें क्या जो मिलें कभी फुर्सत के क्षण।
क्या है आवश्यक, वह उतावला-सा ही हो,
क्या धीरज धरना सीख नहीं पाएगा प्रण।।
माना,कठोर होने को अब कह रहा समय,
कोमल अहसासों के सिर क्यों दें आग, सखे।।
मौसम आँधी वाले हैं,क्या इससे घबरा,
तुलसी का पौधा खुद को कर ले काष्ठ-सदृश।
क्षणभंगुर जीवन का आनन्द न ले पाए,
क्यों बस गुलाब मुरझाने को ही रहे विवश।।
रंगों वाले हाथों तक कीच चली आई।
क्या अंतिम विदा ले गया है अब फाग, सखे।।
माना, मन तो हो चुके किसी पत्थर-जैसे।
क्या लहज़े को भी नरम नहीं रख सकते हैं।।
अंतर्मन को क्या ज़रा राग की ऊष्मा से।
अब कुछ क्षण भी हम गरम नहीं रख सकते हैं।।
दो-चार ज़रा मीठी-मीठी बातें कर लें।
हो भले न कुछ आपस में भी अनुराग, सखे।।
*** पंकज परिमल ***
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
वर्तमान विश्व पर प्रासंगिक मुक्तक
गोला औ बारूद के, भरे पड़े भंडार, देखो समझो साथियो, यही मुख्य व्यापार, बच पाए दुनिया अगर, इनको कर दें नष्ट- मिल बैठें सब लोग अब, करना...

-
पिघला सूर्य , गरम सुनहरी; धूप की नदी। बरसी धूप, नदी पोखर कूप; भाप स्वरूप। जंगल काटे, चिमनियाँ उगायीं; छलनी धरा। दही ...
-
जब उजड़ा फूलों का मेला। ओ पलाश! तू खिला अकेला।। शीतल मंद समीर चली तो , जल-थल क्या नभ भी बौराये , शाख़ों के श्रृंगों पर चंचल , कुसुम-...
No comments:
Post a Comment