अपना जीवन, अपने दुखड़े,
अपने सुख।
इनका ढोल बजाएँ अब
किसके सम्मुख।।
ढिबरी की अपनी लौ
भले ज़रा मद्धिम,
पर अपनी आँखों में
तेज बहुत बाकी।
अपने रस के पात्र सभी
भर ही देगा
वो, जो दुनिया की
मधुशाला का साकी।।
तुमको जो थोड़ा-थोड़ा-सा
दीख रहा,
यह अपनी पुस्तक का
बस केवल आमुख।।
हमने रंगों को भी
सब स्वीकार किया,
चाहे चटख रहे हों,
चाहे धूसर ही।
अपने मन के खेतों में
सपने बोए,
चाहे वे उर्वर हों
चाहे ऊसर ही।।
दीख रहे हैं
तुमको बहुत तरोताज़ा,
दुख के जल से
धोकर लाए अपना मुख।।
हमने अपना ज्ञान
नहीं रक्खा खुद तक,
नई पीढ़ियों को दी
परम्परा आगे।
कितने भी कमजोर रहे
पर थामे हैं,
हम अपने जीवन की
साँसों के धागे।।
थमने दिया न
अपना भी संगीत कभी,
चाहे झेले हैं
मौसम के सारे रुख़।।
इस दुनिया में
घर-घर माटी के चूल्हे,
इनमें अपना भी है एक
तुम्हें पर क्या।
हम जितना मिल जाता
उसमें ही खुश हैं,
हमने तुमसे माँगी नहीं
बहुत सुविधा।।
तुम अपनी ये आँखें
जरा बंद कर लो,
तुमसे देखा अगर नहीं
जाता है दुख।।
*** पंकज परिमल ***
भले ज़रा मद्धिम,
पर अपनी आँखों में
तेज बहुत बाकी।
अपने रस के पात्र सभी
भर ही देगा
वो, जो दुनिया की
मधुशाला का साकी।।
तुमको जो थोड़ा-थोड़ा-सा
दीख रहा,
यह अपनी पुस्तक का
बस केवल आमुख।।
हमने रंगों को भी
सब स्वीकार किया,
चाहे चटख रहे हों,
चाहे धूसर ही।
अपने मन के खेतों में
सपने बोए,
चाहे वे उर्वर हों
चाहे ऊसर ही।।
दीख रहे हैं
तुमको बहुत तरोताज़ा,
दुख के जल से
धोकर लाए अपना मुख।।
हमने अपना ज्ञान
नहीं रक्खा खुद तक,
नई पीढ़ियों को दी
परम्परा आगे।
कितने भी कमजोर रहे
पर थामे हैं,
हम अपने जीवन की
साँसों के धागे।।
थमने दिया न
अपना भी संगीत कभी,
चाहे झेले हैं
मौसम के सारे रुख़।।
इस दुनिया में
घर-घर माटी के चूल्हे,
इनमें अपना भी है एक
तुम्हें पर क्या।
हम जितना मिल जाता
उसमें ही खुश हैं,
हमने तुमसे माँगी नहीं
बहुत सुविधा।।
तुम अपनी ये आँखें
जरा बंद कर लो,
तुमसे देखा अगर नहीं
जाता है दुख।।
*** पंकज परिमल ***
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