हाथ जोड़े हुए, झुर्रियाँ कह रहीं,
कुछ समय तो निकालो हमारे लिए।
बात ख़ुद से करूँ, तुम कहो कब तलक,
लाख सपने मगर, कब झपकती पलक,
सूखती ही गयी, आँख की हर नदी,
प्यास मरुथल बनी, सीप-स्वाती ललक।
पीर पिघली नहीं बर्फ सी जम गयी,
शब्द ऊष्मा उचारो, हमारे लिए।
भीति बहरी हुई सुन मेरी वेदना,
कह नहीं कुछ सकी डूबती चेतना,
ईंट-गारा लहू हड्डियों का भवन,
डूबती साँस है रक्त रंजित तना।
बाण की सेज पर भीष्म सी कामना,
कहकहा ही लगा लो हमारे लिए।
***** गोप कुमार मिश्र
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