जो किसी भी लालसा से मुक्त होगा
सच कहें तो बस वही उन्मुक्त होगा
हो नहीं ईर्ष्या न मन में द्वेष कोई
हो न अभिलाषा-जनित आवेश कोई
कुछ नहीं पाना अगर तो रोष कैसा
मन अगर संतुष्ट फिर आक्रोश कैसा
घूमते लट्टू इसी में व्यस्त बच्चे
भूल कर दुनिया हुए हैं मस्त बच्चे
नाचते लट्टू उधर बच्चे नचाते
लोभ के चक्कर बड़ों को हैं घुमाते
खेल बस प्रतिद्वंद्विता का खेलते हैं
लालसा में लिप्त जीवन झेलते हैं
एक कल्पित प्रगति का उन्माद मन में
जी रहे हैं बस लिए अवसाद मन में
लौट तो सकता नहीं बचपन दुबारा
पर बदल सकता है ये चिंतन हमारा
है मिला जितना उसे पर्याप्त मानें
सुख सदा संतुष्टि से ही प्राप्त जानें
अब न इच्छाएँ भले ही तुष्ट हों सब
है उचित फिर भी सभी संतुष्ट हों अब
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भूपेन्द्र सिंह "शून्य"
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