प्रकृति दोष जब धरती माँ के, आँचल आग लगाता है।
एक वक्त की रोटी को भी, पेट तरस तब जाता है।
कुल कुटुंब की भूख विवशता, होती धरती पुत्रों की।
शुष्क नयन से तब सावन भी, मेघअश्रु बरसाता है।।
इठला कर बादल का पौरुष, दावानल है उगल रहा।
कृषक पुत्र की खुशियाँ सारी, सत्ता का सुख निगल रहा।
खलिहानों का सूखा अँधड़, मन मंतस तरसाता है।
शुष्क नयन से तब सावन भी मेघअश्रु बरसाता है।।
जहाँ वेदना को ठुकराना, ही मंशा सरकारी है।
तब प्राणों को आहुत करना, कृषकों की लाचारी है।
जय किसान का घोष व्यर्थ तब, बोझ कलुष बनजाता हैं।
शुष्क नयन से तब सावन भी, मेघअश्रु बरसाता है।।
***** अनुपम आलोक
कृषक पुत्र की खुशियाँ सारी, सत्ता का सुख निगल रहा।
खलिहानों का सूखा अँधड़, मन मंतस तरसाता है।
शुष्क नयन से तब सावन भी मेघअश्रु बरसाता है।।
जहाँ वेदना को ठुकराना, ही मंशा सरकारी है।
तब प्राणों को आहुत करना, कृषकों की लाचारी है।
जय किसान का घोष व्यर्थ तब, बोझ कलुष बनजाता हैं।
शुष्क नयन से तब सावन भी, मेघअश्रु बरसाता है।।
***** अनुपम आलोक
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