जाम होठों से लगाये मीत तेरे नाम पर
मौन के साये लदे हैं आज अपनी शाम पर
कब शुरू होकर कहाँ ढलती रहीं शामें सभी
कौन रक्खे अब नज़र आगाज़ पर अंजाम पर
साँझ की भी क्या कहें, बस रात छाती है यहाँ
रोज़ तारे देखते हैं चुप खड़े हो बाम पर
चूम शामों की पलक हम कर रहे थे बंदगी
अब खुदा ही दे गवाही इश्क़ के इलज़ाम पर
ज़िन्दगी की साँझ में क्या खूब तुम हो आ मिले
वक़्त मेरा मुस्कुराया देर के ईनाम पर
***** मदन प्रकाश
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