Sunday, 7 February 2016

सावन हरे न भादो सूखे


हमरे खातिर तो सावन हरा ना भादो सूखा,
यहाँ तो रहना पड़ता है झोपड़ियों को भूखा


मेले का मन मचल कहता है मेला जाने को,
धेले का तन हरख सहता है आने आने को,
खेत खलिहानों वाली बतियाँ भूली गाने को,
सारे पखेरू चुगने आये घर अपने ही दाने को,
लेकिन हाल हुआ है मिलता नहीं सूखा रूखा


पासे फेंक रहा शकुनि चौपट चौपड़ पासा है,
कौरव पांडव चाल चल रचते देखो झांसा है,
काँप रहे अनुभव यहाँ सबकी पोपट भाषा है,
आशा के निज कर लागि लुटने गौरव आशा है,
घाव हरे हंसते देखा यह कवि मन दूखा है


- गोविन्द हाँकला

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