Sunday 27 September 2015

दुर्मिल सवैया

"अधजल गगरी छलकत जाए"
 
लघु ज्ञान मिले इतराय सखी, सब मान सुजान घटाय रहे।
अब छाप अँगूठ डटे पद पे,अरु साक्षर पाठ पढ़ाय रहे।
बन नीम हकीम फिरा करते, खतरे महिं जान डलाय रहे

अब पंडित वो समझें खुद जो,कल ज़िल्द किताब बँधाय रहे।


पढ़ चार किताब महान गुणी, कवि वो खुद को बतलाय रहे
नित भाषण वेद ऋचा पर दें, कमियाँ उनकी गिनवाय रहे।
कछु ज्ञान नहीं कछु भान नहीं, नित नीति नई बनवाय रहे
गगरी जल की भरते अधिया, छलकाय रहे ढुरकाय रहे।


*** दीपशिखा सागर

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