कभी आग की बलिवेदी पर, कभी कोख में डाला मार।
युग-युग से जलते अंतर में, कितनी लपटों की भरमार।
रही उपेक्षित जनम-जनम से, कभी न पाया लाड़-दुलार।
बोझ समझ कर जिसे पालते, कुटिल भर्त्सना दुर्व्यवहार।
अब अवसर* आया बेटी का, कभी न मानेगी ये हार।
सजग परिश्रमी लगनशील है, लिए नवल संकल्प विचार।
कोमल कांत कलेवर में भी, निहित भवानी- शक्ति अपार।
कर्तव्यों में बंधी है लेकिन, पाने को अपना अधिकार।
सुगढ़ सुशिक्षिता मृदु कलिका सी, महकाती है घर औ' द्वार।
जागृति का अभिषेक किए है, जीतेगी सारा संसार।
*** कान्ति शुक्ला
