Sunday, 27 April 2025

आतंक/दहशत/ख़ौफ़ - एक ग़ज़ल

 

कैसी हुई आज वहशत
सकते में आयी निज़ामत

ग़मगीन इंसा हुआ है
हर सिम्त है एक ज़हमत

आतंक फैला रहे जो
उनके दिलों में है नफ़रत

हथियार हाथों में ले कर
लूटें लुटेरे मसर्रत

रखना ज़रा सब्र यारो
हो ख़त्म दिल से न वहदत

इंसानियत का तक़ाज़ा
रहे ज़िन्दगी हर सलामत

रखना ज़रा सब्र 'कुंतल'
बेशक़ बचेगी न दहशत

*** कुन्तल श्रीवास्तव

Sunday, 20 April 2025

दूरस्थांचल के गाँवों का चित्रण - एक गीत

 

भारत गाँवों में बसता था,
हुई पुरानी यारो बात।
कभी न डूबा रवि गाँवों में,
छायी है तँह काली रात।।
भारत गाँवों में...
जात-पात का चले बवंडर,
होय भावना लहूलुहान।
वात घृणा की साँय-साँय है,
गाँव हो रहे नित सुनसान।
भाग रहे सब गाँव छोड़ कर,
गाँव न खड़कें सूखे पात।
भारत गाँवों में...
फसल उगाती नहीं धरा भी,
प्रकृति ने भी छोड़ा साथ।
भूख मारती चाबुक रह रह,
तंग हुए हैं सबके हाथ।
नहीं सहारा कुछ गावों में,
बहुत बुरे हैं हर हालात।
भारत गाँवों में....
रोज़गार गाँवों में कम हैं,
मज़दूरी पर भी बड़ा सवाल।
एक शहर ही बड़ा आसरा,
अच्छे नहीं शहर के हाल।
इनी - गिनी मज़दूरी पाते,
खाँय अवध नित गीला भात।
भारत गाँवों में...

*** अवधूत कुमार राठौर 'अवध'

Sunday, 13 April 2025

मुम्बई की एक शाम

 

एक शाम
मुम्बई महानगर की
दिन की आपाधापी
थक कर बैठने की प्रक्रिया में है,
पर अब शुरू होती है
घर वापसी की जद्दो जहद,
लोकल ट्रेन में घुसने की होड़,
बसों के पादान पर खड़े होने की
कवायद/तेज़ क़दमों से मेट्रो स्टेशन की ओर
बढ़ता हुज़ूम
मानों अभी जीवन शुरू हुआ हो,
सबकी आँखों में एक अदद चाहत/काश!
हाथों में लेकर चाय का कप/घर के सोफे पे बैठ
धूप का आख़िरी रंग दिख जाए,
पर ऐसा होता कहाँ है।
सूरज अपने तपते चेहरे पर
सिन्दूरी आँचल रख कर विदा लेते दिख
जाता है यदा कदा,
लोकल की विंडो सीट से
वह भी किसी लॉटरी लगने से कम नहीं होता।
हर शाम ही होता है इंतज़ार
फ्राई डे का/शनिवार की छुट्टी का
यही उम्मीद देती है उर्जा
कल सुबह फिर निकलने की
कंक्रीट के जंगल में जलते बल्ब
जुगनुओं का एहसास कराते हैं,
जैसे वे भी जानते हों
कि रात से पहले कुछ कह लेना ज़रूरी है
तभी तो चल पाता है जीवन/इसी दिनचर्या में
हर रोज़ आती है नियम से शाम
क्या आरंभ क्या अंत
बस एक पल
जहाँ समय थमता नहीं,
पर रुक कर मुस्कुरा ज़रूर देता है
और बखूबी समझ लेता है
शब्दों के बीच की ख़ामोशी को
जिसमें छिपा होता है।
एक पूरी कविता का अर्थ
जिसे हम और आप जीवन का
फलसफा कह सकते हैं।

*** राजेश कुमार सिन्हा

Sunday, 6 April 2025

छोड़ कर जाना नहीं प्रिय - एक गीत

 

छोड़ कर जाना नहीं प्रिय साथ मेरे वास कर लो।
पूर्ण होती जा रही मन कामना तनु प्यास भर लो।

मैं धरा अंबर तुम्ही हो लाज मेरी ढाँप लेना।
मैं रहूँ सम्पन्न तू नम रैन अरुणिम ताप देना।
प्राण मेरे हैं तुम्हारी चेतना के आवरण में।
मैं सु्वासित पुष्प सी तू भौर मंजरि आभरण में।
चाँदनी मैं तू समुंदर विकल नभ तक लास भर लो।

तू गया जो प्राण मेरे साथ तेरे हो लिए प्रिय।
आहटों में पत्र सूखे बोलते स्वर खो लिए प्रिय।
हो ठहर तेरी अयन में साँझ का पंथी न बन यों।
आगलित मन भीग ले बस मत विरह रस धार जन यों।
जीवनी के कटु समर में साथ मेरे रास कर लो।

गूँज प्रेमिल फिर पुकारे है मधुर स्मृति मन गगन में।
हो कहीं बेलक जलद फिर अश्रु बोएंगे लगन में।
गीत बन आरोह औ अवरोह की लहरें डुबातीं।
नेह की मृदु पकड़ में आनंद की ठहरें लुभातीं।
इन्द्रधनु के रंग जीवन में सजें नित न्यास कर लो।
छोड़ कर जाना नहीं प्रिय साथ मेरे वास कर लो॥

*** सुधा अहलुवालिया

"फ़ायदा"

  फ़ायदा... एक शब्द जो दिख जाता है हर रिश्ते की जड़ों में हर लेन देन की बातों में और फिर एक सवाल बनकर आता है इससे मेरा क्या फ़ायदा होगा मनुष्य...