एक शाम
मुम्बई महानगर की
थक कर बैठने की प्रक्रिया में है,
पर अब शुरू होती है
घर वापसी की जद्दो जहद,
लोकल ट्रेन में घुसने की होड़,
बसों के पादान पर खड़े होने की
कवायद/तेज़ क़दमों से मेट्रो स्टेशन की ओर
बढ़ता हुज़ूम
मानों अभी जीवन शुरू हुआ हो,
सबकी आँखों में एक अदद चाहत/काश!
हाथों में लेकर चाय का कप/घर के सोफे पे बैठ
धूप का आख़िरी रंग दिख जाए,
पर ऐसा होता कहाँ है।
सूरज अपने तपते चेहरे पर
सिन्दूरी आँचल रख कर विदा लेते दिख
जाता है यदा कदा,
लोकल की विंडो सीट से
वह भी किसी लॉटरी लगने से कम नहीं होता।
हर शाम ही होता है इंतज़ार
फ्राई डे का/शनिवार की छुट्टी का
यही उम्मीद देती है उर्जा
कल सुबह फिर निकलने की
कंक्रीट के जंगल में जलते बल्ब
जुगनुओं का एहसास कराते हैं,
जैसे वे भी जानते हों
कि रात से पहले कुछ कह लेना ज़रूरी है
तभी तो चल पाता है जीवन/इसी दिनचर्या में
हर रोज़ आती है नियम से शाम
क्या आरंभ क्या अंत
बस एक पल
जहाँ समय थमता नहीं,
पर रुक कर मुस्कुरा ज़रूर देता है
और बखूबी समझ लेता है
शब्दों के बीच की ख़ामोशी को
जिसमें छिपा होता है।
एक पूरी कविता का अर्थ
जिसे हम और आप जीवन का
फलसफा कह सकते हैं।
*** राजेश कुमार सिन्हा